फ़रेबी शायरी by  Muskan Guest writer of  डायरी की शायरी

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मुँह पर दुआ और पीछे मेरी हर तरक्की से जलते हैं  इतने रंग तो गिरगिट भी नहीं बदलता जितने ये बदलते हैं

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मेरा बुरा चाहने वालो के साथ चलते हैं मुझको रोता देख ये मुझपे हसते है

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अपना रिश्ता छुपाते हैं, खुद को अकेला बताते हैं

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बड़े फरेबी लोग है साहब जहां, खूबसुरती देखी फिसल जाते हैं

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नकली लोगो की नकली ही बाते हैं होते कुछ और,  कुछ और ये दिखाते हैं

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मीठी मीठी बातें करते हैं फिर, अपनी हर बात से मुकरते हैं

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इतने रंग तो गिरगिट भी नहीं, बदलता जितने ये बदलते हैं

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